डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर : इतिहास पथ के महायात्री
यूं तो सृष्टि मनुष्य के रूप में नित्य - असंख्य आलेख लिखती और मिटाती है लेकिन कुछ आलेख, आलेख नहीं होते वे शिला
लेख होते हैं जो सृष्टि, समय के वक्ष पर लिखती है। ये शिलालेख ऐसे प्राणवान शिलालेख होते हैं जो इतिहास की निधि और भविष्य निधि की विरासत पर बन जाते हैं। देह उनके लिए गौण होती है इसलिए कि इनकी सृजन यात्रा में इनकी देह कभी बाधा नहीं बनती है। देह में रहते ये रचते हैं और देह से परे होने के बाद ये रचाव के राजपथ बन जाते हैं।स्व. विष्णु श्रीधर वाकणकर हमारी उजली विरासत के ऐसे ही उजले राजपथ हैं जो पीढ़ियों को उनके सार्थक गंतव्य तक पहुंचाने की सामर्थ्य रखते हैं। यह वर्ष डॉ. वाकणकर का जन्मशती वर्ष है। वे 4 मई 1919 को नीमच में जन्मे थे तथा 3 अप्रैल 1988 को उनका निधन हुआ। उन्होंने अपना सारा जीवन कर्मयोगी की भांति जीया। उन्होंने कला, संस्कृति और पुरातत्व को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया थाप्रसिद्ध पुरातत्वविद् डॉ. एच.डी. सांकलिया जो डेकन कॉलेज, पुणे के पुरातत्व विभाग के प्रमुख थे, के मार्गदर्शन में उन्होंने पी.एच.डी. की। यह उपाधि उन्हें सन् 1973 में पूना विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई। उनके शोध प्रबन्ध का शीर्षक है, 'पेन्टेड रॉक शेल्टर्स ऑफ इण्डिया'। इसका प्रकाशन संचालनालय, पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय द्वारा वर्ष 2005 में किया गया।
डॉ. वाकणकर की विश्वव्यापी प्रसिद्धि का कारण उनके द्वारा वर्ष 1975 में भीम बैठका समूह की गुफाओं की खोज का किया जाना थाइसके अलावा उन्हें विश्वव्यापी प्रसिद्धि सरस्वती नदी की खोज के सम्बन्ध में प्राप्त हुई। डॉ. वाकणकर ने बिना किसी अपेक्षाभाव के पूरे मालवा में ऐतिहासिक स्थलों का उत्खनन किया। मनोटी, इन्दरगढ़, कायथा, दगवाड़ा, रूणिजा तथा नागदा से लेकर मन्दसौर, जावद और नीमच तक के क्षेत्रों में उन्होंने उत्खनन कर वहां के अनजाने इतिहास को उद्घाटित किया। डॉ. वाकणकर ने मालवा की स्थापत्य, शिल्प और चित्रांकन की परम्पराओं पर गहरा शोध की तथा अनेक शोध-पत्र प्रकाशित किये। उन्होंने उज्जैन के सिंधिया प्राच्य शोध संस्थान में रहते हुए सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि इस संग्रहालय में अनेक दुर्लभ पाण्डुलिपियों को संग्रहीत कर उनका अध्ययन किया। वे 1975 में पद्मश्री से भी अलंकृत किए गए। डॉ. वाकणकर की एक विशेषता यह थी कि वे बहुत अच्छे चित्रकार थे इसलिए वे पुरातात्विक स्थलों का चित्रांकन भी करते थे, ठीक नर्मदा के अमर यात्री स्व. अमृतलाल बेगड़ की तरह जिन्होंने नर्मदा के प्रवाह व उसके तटों पर बसे हुए जनजीवन को अपनी रेखाओं में जीवंत कर दिया है।